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Showing posts from July, 2011

मन नहीं लगता किसी भी शहर में................

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छोड कर जब से तुम्हारा शहर हम आये मन नहीं लगता किसी भी शहर में। फूल जितने भी सजे गुलदान में नागफनियों से सभी चुभने लगे, जो कभी करते हवा से गुफ्तगू रास्तों पर वो क़दम रुकने लगे, जिस नदी तट पर मिला करते थे हम अक्सर डूबता अब मन उसी की लहर में । आँख क्या करती उसी के घाट पर स्वप्न सारे अश्रु पीने आ गये, गर्मियाँ खुद बर्फ सी जमने लगी सर्दियों को भी पसीने आ गये, रात में झुलसा रही है चाँदनी तन मन दर्द दूने हो गये दोपहर में । जब भी आते हो खयालों मे मेरे महकने लगता है मेरा तन बदन, एक गज़ल कह दूँ तुम्हारी शान में उस समय तेज़ी से चलता है ज़हन, मेरे मतले और मक्ते में तुम्ही तुम हो शेर सारे हैँ तुम्हारी बहर में ।

द्वार के सतिये..............

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जब कभी भी हो तुम्हारा मन चले आना , द्वार के सतिये तुम्हारी हैं प्रतीक्षा में॥ हाथ से कांधों को हमने थाम कर साथ चलने के किये वादे कभी , मन्दिरों दरगाह पीपल सब जगह जाके हमने बाँधे थे धागे कभी , प्रेम के हर एक मानक पर खरे थे हम , बैठ ना पाये न जाने क्यों परीक्षा में | हम जलेंगे और जीयेंगे उम्रभर अपना और दिये का ये अनुबन्ध है , तेज़ आँधी भी चलेगी साथ में पर बुझायेगी नहीं सौगन्ध है , पुतलियाँ पथरा गयीं पथ देखते पल-पल , आँख को शायद मिला ये मंत्र दीक्षा में। अक्षरों के साथ बंध हर पँक्ति में याद आयी है निगोडी गीत में , प्रीत की पुस्तक अधूरी रह गयी सिसकियाँ घुलने लगीं सँगीत में , दर्द का ये संकलन मिल जाये तो पढना , मत उलझना तुम कभी इसकी परीक्षा में।