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Showing posts from June, 2014

दिल में मत आग लगा...

दिल में मत आग लगा-दिल में मत आग लगा। मेरा दामन सफेद है न इसमें दाग लगा । बस्ती बस्ती मैं घूमा हूँ , अपनी मस्ती में झूमा हूँ जाने कितने तूफां आये पर इस लौ को बुझा न पाये सो रहे हैं मेरे अरमान इन्हें अब न जगा......... जिसको हमने प्यार किया है उस पर सब कुछ वार दिया है जो भी कपट में चूर रहे हैं उनसे सदा हम दूर रहे हैं इस ज़मी पर न उम्मीदों के कोई बाग लगा...... जाने कितनी कलियाँ देखीं इश्क की यारो गलियाँ देखीं फूल से कोमल तन देखे हैं , भोले भाले मन देखे हैं मैं हूँ चंदन तू इसपे चाहे जितने नाग लगा.......

देखना कल के अखबार का राशिफल...

देखना कल के अखबार का राशिफल योग मेरा तेरे साथ मिल जायेगा । बात हो , साथ हो और फिर रात हो , में खुद-ब-खुद हाथ मिल जायेगा। मुझको पहचान के अपनी मुस्कान से गर जलाओ दिये होगी दीपावली। फिर ये पुरवाइयाँ लेंगीं अँगड़ाइयां चट चटक जायेगी बाग की हर कली। धड़कनों की दुल्हन बन के शरमाओ तो- दिल ये लेकर के बारात मिल जायेगा। देखना........ फूल बालों में जब से लगाया प्रिये हम परागों का व्यापार करने लगे। आस्था मन्दिरों में तुम्हारी जगी पत्थरों से भी हम प्यार करने लगे । डाल दो तुम इधर एक शहरी नज़र- नेह का तुमको देहात मिल जायेगा। देखना.......... चटके दरपन में झाँकोगी टूटोगी तुम मेरी आँखे भला काम कब आयेंगीं ? रात से दिन लिपटता है जिस बिन्दु पर मेरे जीवन में वो शाम कब आयेंगीं ? तेज़ बारिश में तुम भीग कर देख लो- मेरे आँसू का अनुपात मिल जायेगा। देखना......

गणित गीत...

एक अडिग सी शिला तुम सदा से रहीं , बुलबुलों की तरह फूटते हम रहे। दो से दो की तरह तुम तो दूने हुए , और गुणन खण्ड से टूटते हम रहे। हमने माथे की बिन्दी को बिन्दु समझ , जब चुराया तो सीमांत रेखा बना। जब तना लाजवंती का हमने छुआ , वो भी झुकने के स्थान पर तन गया। ज्यों दशमलव के आगे लगे शून्य हों बस उन्हीं की तरह छूटते हम रहे। एक अडिग......... चुपके-चुपके हमें जब निहारा किये , दृष्टि ऐसी झुकी जैसे समकोण हो। रूप ही एक बस शाश्वत सत्य है , सृष्टि ऐसी लगी ज्यों स्वयं गौण हो। तुम स्वयं-सिद्ध सी एक प्रश्नावली हर कठिन प्रश्न से रूठते हम रहे। एक अडिग..... हम कई बार मन से लघुत्तम बने , तुम महत्तम बने और बनते गये। यूँ तो अस्तित्व मेरा रहा शून्य-सा , अंक पर जब लगा लोग गिनते गये। अर्थ के वास्ते आज कवि बन गये हर कठिन प्रश्न से रूठते हम रहे। एक अडिग..

छोड़कर जब से तुम्हारा...

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छोड कर जब से तुम्हारा शहर हम आये मन नहीं लगता किसी भी शहर में। फूल जितने भी सजे गुलदान में नागफनियों से सभी चुभने लगे, जो कभी करते हवा से गुफ्तगू रास्तों पर वो क़दम रुकने लगे, जिस नदी तट पर मिला करते थे हम अक्सर डूबता अब मन उसी की लहर में । आँख क्या करती उसी के घाट पर स्वप्न सारे अश्रु पीने आ गये, गर्मियाँ खुद बर्फ सी जमने लगी सर्दियों को भी पसीने आ गये, रात में झुलसा रही है चाँदनी तन मन दर्द दूने हो गये दोपहर में । जब भी आते हो खयालों मे मेरे महकने लगता है मेरा तन बदन, एक गज़ल कह दूँ तुम्हारी शान में उस समय तेज़ी से चलता है ज़हन, मेरे मतले और मक्ते में तुम्ही तुम हो शेर सारे हैँ तुम्हारी बहर में ।