ग़ज़ल

हसीन ख्वाब लिये में उधर से निकला था।
नज़र बचा वो बड़े ही हुनर से निकला था।

जहान भर की नियामत लुटाई रब ने तभी
क़लम को साथ लिए जब भी घर से निकला था

वो बस सुलाता रहा चाँद और सितारों को
उसे ख़बर नहीं सूरज किधर से निकला था

वो जिसने खार मेरी राह में बिछाए थे
मिले थे फूल उसे वो जिधर से निकला था।

किसे फ़िकर कि कहाँ शाम हो गयी उसकी
बड़ी उमीद से जो दोपहर से निकला था।

यूँ उसकी पूरी ग़ज़ल ही दिखी मुकम्मल पर
जो शेर अच्छा लगा वो बहर से निकला था

तुझे पता था क़दम लड़खड़ा ही जाएँगे
तो जानबूझ के क्यों उस शहर से निकला था

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