एक गीत हताशा का

जिसको जीवन भर समझा था सपनों का इक घर
खुली आँख तो पाया- टूटा फूटा सा खंडहर।

घर के बिल्कुल पास समंदर
खूब गरजता था,
पर देहरी छूने का साहस
कभी न करता था,
ऊंची ऊंची लहरें फिर भी, नीची रही नज़र।
आंख.........

हर मुंडेर पर हमने गमले
रखे करीने से,
फूल खिलेंगे यही प्रतीक्षा
कई महीने से,
धूप- हवा-पानी सब कुछ था मिला मगर पतझर।
आंख...........

सोचा था एक प्यारी सी
अब ग़ज़ल कहेंगे हम,
पर मतला कहने भर में ही
टूटे सभी वहम,
जितने शेर हुए सबकी ही बिगड़ी हुई बहर।
आंख...........

कड़ी धूप में भाग भाग कर
रातें काली कीं,
तब जाकर के इस गुलशन को
कुछ हरियाली दीं,
हल्की सी आंधी ने सब कर डाला तितर-बितर।
आंख.......

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